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तैत्तिरीय उपनिषद: ब्रह्मविद्या का अमृत कलश - 'आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात्'

 

"आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात्।"

(अर्थ: उसने (भृगु ने) जाना कि आनन्द ही ब्रह्म है।)

यह महावाक्य तैत्तिरीय उपनिषद के सार को व्यक्त करता है। यह उपनिषद आनंदमय ब्रह्म की प्राप्ति को जीवन का परम लक्ष्य बताता है।

प्रस्तावना:

तैत्तिरीय उपनिषद, कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा का एक प्रमुख उपनिषद है। इसमें ब्रह्मविद्या, आत्मा का स्वरूप, पंचकोशों का विवेचन, शिक्षावल्ली, ब्रह्मानन्दवल्ली और भृगुवल्ली आदि का वर्णन है। यह उपनिषद हमें सिखाता है कि ब्रह्म ही परम सत्य है, और उसी से यह जगत उत्पन्न हुआ है। आत्मा भी ब्रह्म का ही अंश है, और इस ज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है।

विषय-वस्तु:

तैत्तिरीय उपनिषद का मुख्य विषय ब्रह्मज्ञान और आत्मा के स्वरूप का प्रतिपादन करना है। यह उपनिषद हमें सिखाता है कि मनुष्य अपने भीतर स्थित आत्मा का ज्ञान प्राप्त करके ब्रह्म को भी जान सकता है।  यह उपनिषद हमें पंचकोशों - अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय - के माध्यम से आत्मा के स्वरूप को समझने में मदद करता है।

मुख्य बिन्दुओं का विवेचन:

1. शिक्षावल्ली:

शिक्षावल्ली में  गुरु और शिष्य के संबंधों,  वेदों के महत्व,  और  अध्ययन  की  विधियों  का  वर्णन  है।  इसमें  उच्चारण  की  शुद्धता,  मंत्रों  के  अर्थ  का  ज्ञान,  और  नैतिक  आचरण  पर  बल  दिया  गया  है।

2. ब्रह्मानन्दवल्ली:

ब्रह्मानन्दवल्ली में  ब्रह्म  के  आनंदमय  स्वरूप  का  वर्णन  है।  इसमें  बताया  गया  है  कि  ब्रह्म  ही  आनंद  का  स्रोत  है,  और  उसी  से  यह  सारा  जगत  उत्पन्न  हुआ  है।  यह वल्ली हमें आनंदमय ब्रह्म की प्राप्ति के मार्ग का ज्ञान कराती है।

3. भृगुवल्ली:

भृगुवल्ली में  भृगु  द्वारा  अपने  पिता  वरुण  से  ब्रह्म  के  विषय  में  पूछे  गए  प्रश्नों  और  उनके  उत्तरों  का  वर्णन  है।  भृगु  तपस्या  के  द्वारा  क्रमशः  अन्न,  प्राण,  मन,  विज्ञान  और  अंत में आनंद को ब्रह्म के रूप में जानता है।  यह वल्ली हमें ब्रह्म को जानने के लिए  तपस्या और  आत्मचिंतन  के  महत्व  को  बताती  है।

4. पंचकोश:

तैत्तिरीय उपनिषद में  आत्मा  को  पंचकोशों  से  घिरा  हुआ  बताया  गया  है:

 * अन्नमय कोश: यह  शरीर  का  स्थूलतम  कोश  है,  जो  अन्न  से  बना  है।

 * प्राणमय कोश: यह  कोश  प्राण  शक्ति  से  बना  है,  जो  शरीर  की  क्रियाओं  को  संचालित  करता  है।

 * मनोमय कोश: यह  कोश  मन  और  इंद्रियों  से  बना  है,  जो  ज्ञान  और  अनुभव  का  आधार  है।

 * विज्ञानमय कोश: यह  कोश  बुद्धि  और  विवेक  से  बना  है,  जो  सही  और  गलत  में  अंतर  करने  में  मदद  करता  है।

 * आनंदमय कोश: यह  आत्मा  का  सूक्ष्मतम  कोश  है,  जो  आनंद  स्वरूप  है।

कुछ प्रमुख मंत्रों की व्याख्या:

 * "शं नो मित्रः शं वरुणः। शं नो भवत्वर्यमा। शं न इन्द्रो बृहस्पतिः। शं नो विष्णुः क्रमोत्।" (मित्र (सूर्य) हमें शांति प्रदान करें, वरुण (जल) हमें शांति प्रदान करें। अर्यमा (अग्नि) हमें शांति प्रदान करें। इन्द्र और बृहस्पति हमें शांति प्रदान करें। विष्णु (व्यापक) हमें शांति प्रदान करें।) यह मंत्र  शांति  की  कामना  करता  है।

 * "यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै। तं ह देवमात्मबुद्धिप्रकाशं मुमुक्षुर्वै शरणमहं प्रपद्ये॥" (जो  ब्रह्मा  को  उत्पन्न  करता  है,  जो  पहले  वेदों  को  भेजता  है,  उस  देव,  आत्मबुद्धिप्रकाश  को,  मुमुक्षु  मैं  शरण  जाता  हूँ।) यह मंत्र  ब्रह्म  के  ज्ञान  की  महत्ता  को  बताता  है।

 * "आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात्।" (उसने (भृगु ने) जाना कि आनन्द ही ब्रह्म है।) यह  महावाक्य  ब्रह्म  के  आनंदमय  स्वरूप  को  व्यक्त  करता  है।

प्रसिद्ध व्यक्तियों की टिप्पणियाँ:

 * शंकराचार्य: आदि शंकराचार्य ने तैत्तिरीय उपनिषद पर अपनी भाष्य में अद्वैत वेदांत के सिद्धांतों को विस्तार से समझाया है। उन्होंने आत्मा और ब्रह्म की एकता पर बल दिया है।

 * रामानुजाचार्य: रामानुजाचार्य ने तैत्तिरीय उपनिषद पर अपनी विशिष्टाद्वैत  भाष्य  में  ब्रह्म  को  सगुण  और  आनंदमय  बताया  है।

उपसंहार:

तैत्तिरीय उपनिषद एक ऐसा उपनिषद है जो हमें ब्रह्मज्ञान, आत्मा का स्वरूप, पंचकोशों का विवेचन, और शिक्षा के महत्व का ज्ञान प्रदान करता है। यह हमें सिखाता है कि मनुष्य अपने भीतर स्थित आत्मा का ज्ञान प्राप्त करके ब्रह्म को भी जान सकता है। "आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात्" का महावाक्य हमें आनंदमय ब्रह्म की प्राप्ति के लिए प्रेरित करता है। इस उपनिषद का अध्ययन करके हम अपने जीवन को सार्थक बना सकते हैं।

कुछ प्रेरक उद्धरण:

 * "अपने आप को जानो, यही सबसे बड़ा ज्ञान है।"

 * "आनंद ही जीवन है।"

 * "सत्य ही ब्रह्म है।"

अंतिम उद्धरण:

"ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः"

(अर्थ:  शांति, शांति, शांति।)


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