"ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्॥"
(अर्थ: इस जगत में जो कुछ भी चल-अचल है, वह सब ईश्वर से व्याप्त है। इसलिए त्यागपूर्वक भोग करो, किसी के धन का लोभ मत करो।)
यह शक्तिशाली मंत्र ईशोपनिषद की आधारशिला है। यह हमें सिखाता है कि यह संसार ईश्वर का ही रूप है, और हमें इसमें रहकर भी अनासक्त भाव से जीवन जीना चाहिए। त्याग और संतोष का महत्व यहाँ स्पष्ट किया गया है।
प्रस्तावना:
उपनिषद भारतीय दर्शन के गूढ़तम ग्रंथों में से हैं। वेदों के अंतिम भाग होने के कारण इन्हें 'वेदांत' भी कहा जाता है। उपनिषदों में आत्मा, ब्रह्म, जगत, और मोक्ष जैसे गहन विषयों पर चिंतन किया गया है। ईशोपनिषद, यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय का भाग है, और यह सबसे छोटे उपनिषदों में से एक है, जिसमें केवल 18 मंत्र हैं। परन्तु आकार में छोटा होने के बावजूद, इसका महत्व बहुत अधिक है। इसमें अद्वैत वेदांत के मूलभूत सिद्धांतों का सारगर्भित वर्णन मिलता है।
विषय-वस्तु:
ईशोपनिषद का मुख्य विषय ब्रह्म और आत्मा की एकता का प्रतिपादन करना है। यह उपनिषद हमें सिखाता है कि यह संपूर्ण जगत ब्रह्म से व्याप्त है, और प्रत्येक जीव में उसी ब्रह्म का अंश आत्मा के रूप में विद्यमान है। इसलिए, सभी जीवों में एक ही चैतन्य सत्ता का अनुभव करना चाहिए। यह उपनिषद कर्म, ज्ञान, और भक्ति के समन्वय का मार्ग भी प्रशस्त करता है।
मुख्य बिन्दुओं का विवेचन:
1. ईश्वर की सर्वव्यापकता:
ईशोपनिषद का पहला मंत्र ही ईश्वर की सर्वव्यापकता का वर्णन करता है। यह जगत ईश्वर से व्याप्त है, कण-कण में ईश्वर का वास है। इसलिए, हमें किसी भी वस्तु पर अपना अधिकार नहीं जमाना चाहिए, बल्कि उसे ईश्वर की देन समझकर ग्रहण करना चाहिए।
2. अनासक्ति का महत्व:
उपनिषद हमें सिखाता है कि संसार में रहते हुए भी अनासक्त भाव से कर्म करना चाहिए। किसी भी वस्तु या व्यक्ति से मोह नहीं रखना चाहिए, क्योंकि यह सब नश्वर है। जो ईश्वर में स्थित है, वही वास्तव में स्थिर है।
3. कर्म और ज्ञान का समन्वय:
ईशोपनिषद कर्म और ज्ञान दोनों को मोक्ष के लिए आवश्यक मानता है। केवल कर्म करने से या केवल ज्ञान प्राप्त करने से मोक्ष नहीं मिल सकता। दोनों का समन्वय आवश्यक है। हमें निष्काम भाव से कर्म करना चाहिए और ईश्वर के ज्ञान को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए।
4. आत्मा और ब्रह्म की एकता:
उपनिषद का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत आत्मा और ब्रह्म की एकता है। आत्मा ब्रह्म का ही अंश है, और दोनों में कोई वास्तविक भेद नहीं है। जब हम इस सत्य का अनुभव कर लेते हैं, तो हमें मोक्ष की प्राप्ति होती है।
5. अविद्या और विद्या का विवेचन:
ईशोपनिषद अविद्या (अज्ञान) और विद्या (ज्ञान) का भी विवेचन करता है। अविद्या हमें संसार में आसक्त करती है, जबकि विद्या हमें मोक्ष की ओर ले जाती है। हमें अविद्या से दूर रहकर विद्या को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए।
कुछ प्रमुख मंत्रों की व्याख्या:
* "अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते। ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायां रताः॥" (जो अविद्या की उपासना करते हैं, वे घोर अंधकार में प्रवेश करते हैं, और जो विद्या में रत हैं, वे उससे भी अधिक अंधकार में प्रवेश करते हैं।) यहाँ अविद्या और विद्या दोनों के अहंकार से बचने की बात कही गई है। केवल ज्ञान का अहंकार भी बंधन का कारण बन सकता है।
* "अन्यदेवाहुर्विद्यादन्यदाहुर्विद्यया। इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे॥" (विद्या से कुछ और कहा जाता है, अविद्या से कुछ और कहा जाता है। ऐसा हमने धीरों से सुना है जिन्होंने हमें वह समझाया।) यह मंत्र हमें बताता है कि विद्या और अविद्या दोनों सापेक्षिक हैं। ब्रह्म को जानने के लिए दोनों से परे जाना होगा।
* "ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्॥" (यह सब कुछ जो इस जगत में गतिमान है, ईश्वर से व्याप्त है। त्यागपूर्वक भोग करो, किसी के धन का लालच मत करो।) यह मंत्र हमें सिखाता है कि संसार में जो कुछ भी है, वह ईश्वर का है। इसलिए हमें त्याग और संतोष का जीवन जीना चाहिए।
प्रसिद्ध व्यक्तियों की टिप्पणियाँ:
* शंकराचार्य: आदि शंकराचार्य ने ईशोपनिषद पर अपनी भाष्य में अद्वैत वेदांत के सिद्धांतों को बड़ी ही स्पष्टता से समझाया है। उन्होंने इस उपनिषद को आत्मा और ब्रह्म की एकता का प्रतिपादक बताया है।
* महात्मा गांधी: महात्मा गांधी ईशोपनिषद को बहुत महत्वपूर्ण मानते थे। उन्होंने इसे 'जीवन का सार' कहा था। उनके अनुसार, इस उपनिषद में त्याग, संतोष और अनासक्ति का जो संदेश दिया गया है, वह हर व्यक्ति के लिए अनुकरणीय है।
उपसंहार:
ईशोपनिषद एक छोटा सा उपनिषद होने के बावजूद, इसमें भारतीय दर्शन के गूढ़तम सिद्धांतों का सार निहित है। यह हमें ईश्वर की सर्वव्यापकता, अनासक्ति का महत्व, कर्म और ज्ञान का समन्वय, आत्मा और ब्रह्म की एकता, तथा अविद्या और विद्या के स्वरूप का ज्ञान कराता है। इस उपनिषद का अध्ययन करके हम अपने जीवन को सार्थक बना सकते हैं।
कुछ प्रेरक उद्धरण:
* "अपने आप को जानो, यही सबसे बड़ा ज्ञान है।"
* "जो कुछ भी तुम करते हो, उसे ईश्वर को समर्पित करो।"
* "त्याग और संतोष ही सुख की कुंजी है।"
अंतिम उद्धरण:
"ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः"
(अर्थ: शांति, शांति, शांति।)
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