"The greatest glory in living lies not in never falling, but in rising every time we fall." - Nelson Mandela
"आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसीन्नान्यत् किञ्चनाग्रे आसीत्। स ईक्षत लोकान्नु सृजा इति स इमाँल्लोकानसृजत।"
(अर्थ: यह सब (जगत) पहले आत्मा ही एक रूप में था। कुछ और नहीं था। उसने संकल्प किया, 'मैं लोकों की रचना करूँ।' उसने इन लोकों की रचना की।)
यह महावाक्य ऐतरेयोपनिषद की आधारशिला है। यह उपनिषद हमें बताता है कि यह जगत आत्मा से ही उत्पन्न हुआ है, और आत्मा ही इसका आधार है।
प्रस्तावना:
ऐतरेयोपनिषद, ऋग्वेद का एक महत्वपूर्ण उपनिषद है। यह उपनिषद हमें आत्मा के स्वरूप, सृष्टि की उत्पत्ति, और जीवन के रहस्य के बारे में गहन ज्ञान प्रदान करता है। इसमें तीन खंड हैं, जिनमें प्रत्येक में अलग-अलग विषयों का विवेचन किया गया है।
विषय-वस्तु:
ऐतरेयोपनिषद का मुख्य विषय आत्मा और ब्रह्म की एकता का प्रतिपादन करना है। यह उपनिषद हमें सिखाता है कि आत्मा ही ब्रह्म है, और दोनों में कोई वास्तविक भेद नहीं है। यह उपनिषद हमें सृष्टि की उत्पत्ति, पुरुष और आत्मा के संबंध, और पुनर्जन्म के चक्र के बारे में भी जानकारी प्रदान करता है।
मुख्य बिन्दुओं का विवेचन:
1. सृष्टि की उत्पत्ति:
ऐतरेयोपनिषद हमें बताता है कि सृष्टि से पहले केवल आत्मा ही विद्यमान थी। उसने संकल्प किया और अपने आप से ही लोकों की रचना की। सबसे पहले उसने अम्भस् (आकाश), मरीचिः (प्रकाश), आपः (जल), और क्षितिः (पृथ्वी) की उत्पत्ति की।
2. पुरुष की उत्पत्ति:
लोकों की रचना के बाद, आत्मा ने पुरुष की उत्पत्ति की। पुरुष को सृष्टि का पहला जीव माना जाता है। आत्मा ने पुरुष में अपने आपको प्रवेश कराया और उसे जीवन प्रदान किया।
3. देवताओं की उत्पत्ति:
पुरुष की उत्पत्ति के बाद, आत्मा ने देवताओं की उत्पत्ति की। देवताओं को सृष्टि का संचालन करने और प्राकृतिक शक्तियों को नियंत्रित करने के लिए उत्पन्न किया गया है।
4. आत्मा का स्वरूप:
ऐतरेयोपनिषद आत्मा को ब्रह्म का अंश बताता है। आत्मा अज, अमर और अविनाशी है। यह शरीर, मन और बुद्धि से परे है। आत्मा ही जीवन का आधार है, और उसी से यह सारा जगत चलता है।
5. पुनर्जन्म का चक्र:
ऐतरेयोपनिषद पुनर्जन्म के चक्र के बारे में भी जानकारी प्रदान करता है। यह उपनिषद हमें बताता है कि मृत्यु के बाद आत्मा एक नए शरीर को धारण करती है और अपने कर्मों के अनुसार पुनः जन्म लेती है।
कुछ प्रमुख मंत्रों की व्याख्या:
* "आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसीन्नान्यत् किञ्चनाग्रे आसीत्। स ईक्षत लोकान्नु सृजा इति स इमाँल्लोकानसृजत।" (Atman (the Self) alone existed in the beginning; nothing else whatsoever existed. He thought, "Let me create the worlds." He created these worlds.)
यह मंत्र सृष्टि की उत्पत्ति के बारे में बताता है। यह हमें सिखाता है कि सृष्टि से पहले केवल आत्मा ही विद्यमान थी।
* "स एतमेव पुरुषं निरमिमीत।" (He created this very Person.)
यह मंत्र पुरुष की उत्पत्ति के बारे में बताता है। यह हमें सिखाता है कि आत्मा ने सबसे पहले पुरुष की उत्पत्ति की।
* "स ईक्षत कथं न्विदं मया विना स्यादिति स एतमेव पुरुषं प्राविशत्।" (He thought, "How can this be without Me?" He entered this very Person.)
यह मंत्र आत्मा और पुरुष के संबंध के बारे में बताता है। यह हमें सिखाता है कि आत्मा ने पुरुष में अपने आपको प्रवेश कराया और उसे जीवन प्रदान किया।
* "प्रज्ञानं ब्रह्म।" (Consciousness is Brahman.)
यह महावाक्य आत्मा और ब्रह्म की एकता का प्रतिपादन करता है। यह हमें सिखाता है कि आत्मा ही ब्रह्म है।
प्रसिद्ध व्यक्तियों की टिप्पणियाँ:
* शंकराचार्य: आदि शंकराचार्य ने ऐतरेयोपनिषद पर अपनी भाष्य में अद्वैत वेदांत के सिद्धांतों को बड़ी ही स्पष्टता से समझाया है। उन्होंने आत्मा और ब्रह्म की एकता पर बल दिया है।
* विवेकानंद: स्वामी विवेकानंद ऐतरेयोपनिषद को एक महत्वपूर्ण उपनिषद मानते थे। उन्होंने इसके ज्ञान को जन-जन तक पहुंचाने का प्रयास किया।
उपसंहार:
ऐतरेयोपनिषद एक ऐसा उपनिषद है जो हमें आत्मा के स्वरूप, सृष्टि की उत्पत्ति, पुरुष और आत्मा के संबंध, और पुनर्जन्म के चक्र के बारे में गहन ज्ञान प्रदान करता है। "प्रज्ञानं ब्रह्म" का महावाक्य हमें आत्मा और ब्रह्म की एकता का अनुभव करने के लिए प्रेरित करता है। इस उपनिषद का अध्ययन करके हम अपने जीवन को सार्थक बना सकते हैं।
कुछ प्रेरक उद्धरण:
* "अपने आप को जानो, यही सबसे बड़ा ज्ञान है।"
* "आत्मा ही ब्रह्म है।"
* "जीवन एक यात्रा है, और ज्ञान उसका मार्ग है।"
अंतिम उद्धरण:
"ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः"
(अर्थ: शांति, शांति, शांति।)
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